धर्म

छठ पूजा वाला प्रेम – अभिषेक सिंह

छठ पूजा – (अभिषेक सिंह) पापा बेगूसराय में judicial मैजिस्ट्रेट थे । वहाँ रेल्वे फाटक के पार officers कॉलोनी थी वहीं रहते थे हम लोग । बहुत ही सुंदर कॉलोनी थी ।बीचोंबीच एक बड़ा सा तालाब था,पक्का तालाब। उसके चारों तरफ़ यूकलिप्टस के बड़े बड़े पेड़ । शाम को क्रिकेट खेलने के बाद उसी तालाब के चारों तरफ़ साइकल चलाते थे । हम सारे दोस्त और ‘वो’ । इस समय क्लास 7th में थे,दोनों । कभी बातें नहीं करते थे बस साथ में साइकल चलाते थे और कभी कभी एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते थे ।

उसी तालाब में छठ पूजा होती थी । सिर्फ़ कॉलोनी के परिवार ही नहीं आसपास के वो सारे लोग उस समय कॉलोनी में आते थे जिनके आने पर आम दिनों में मनाही थी । हमारे घर छठ नहीं होता क्यूँकि कभी हुआ ही नहीं । उसके पहले मैंने कभी छठ देखा नहीं था और देखा भी होगा तो याद नहीं था । उस दिन सुबह सुबह उठ कर पापा-मम्मी दोनों छठ देखने चले गए तालाब पर । घर पर बस मैं और छोटा भाई रज़ाई ओढ़ कर सो रहे थे कि तभी एक सुरीली आवाज़ कानों में पड़ी – “छठ घाट नहीं चलोगे ?” आधी नींद में घुसा हुआ मैं .. सिर उठा कर देखा तो जाड़े की धूप सी दमकती हुई वो सामने खड़ी थी पीले सूट में और उसके गीले बाल से जैसे ओस टपक रही हो ..कुछ सेकंड तो जैसे ठहर सा गया .. फिर सहसा उठा और बोला -“ क्यूँ नहीं चलूँगा ..तुम्हारे आने का ही वेट तो कर रहा था” ..फ़्लर्ट हम शुरू से रहे हैं तो इतना तो बनता था,वो भी शर्मा सी गयी,हमारा प्यार और परवान चढ़ गया था । छोटे भाई ने रज़ाई से मुंडी निकाली और ऐसे इक्स्प्रेशन दिए जैसे बोल रहा हो – “तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता” ।

अब वो आगे आगे और मैं उसके पीछे पीछे । २०० मीटर का रास्ता कभी ख़त्म ना हो यही सोच रहा था मैं । तभी अचानक लोगों की चिल्लपों से सपना टूटा तो देखा कि मैं छठ घाट पर खड़ा था ।लाल उगते सूर्य को अर्घ डालती महिलाएँ नाक से लेकर माथे तक नारंगी सिंदूर में,काली हों या गोरी,गरीब हों या अमीर,ग़ज़ब की सुंदर लग रही थीं । पूरा दृश्य ही मनमोहक था । वहीं बग़ल में पीले सूट और गीले बालों में खड़ी “वो” मुझे देख कर मुस्कुरा रही थी । क़सम अपनी साइकल की बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी । तभी पीछे से आवाज़ आई-

“तुम कब आ गए ? और यहाँ क्या कर रहे हो?” ये आवाज़ मेरी मम्मी सिंह की थी । जैसे चोर पकड़ा जाता है वैसी ही हालत हो गई । ना मुँह से आवाज़ निकले ना आँखें मिलाने की हिम्मत । बहुत कोशिश की तब एक ही आवाज़ निकली – “काँच ही बाँस के बहँगिया,बहँगी लचकत जाए” .. ये सुन कर मम्मी सिंह और “वो” दोनों ठहाके मार कर हँस दिए । किसकी हँसी ज़्यादा प्यारी थी पता नहीं । आज भी छठ का नाम आता है तो वही सीन आँखों के सामने आ जाता है और बहुत अच्छा अच्छा फ़ील होता है ।

छठ महापर्व की शुभकामनाएँ सभी को 💐
जय छठी मैया (अभिषेक सिंह)🙏🏻

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